Friday, July 16, 2021

विकास और केशव पंडित ( शगुन शर्मा )

उपन्यास / विकास और केशव पंडित
लेखक /शगुन शर्मा
समीक्षा / जयदेव चावरिया 


















"विकास" झील-सी नीली और गहरी आंखों वाला लड़का बोला-"तुमने कहा केशव कभी कानून हाथ में नहीं लेता। यह सच है। तुमने कहा-केशव कभी अपराध नहीं करता। यह आधा सच है। पूरा सच यह है कि केशव पंडित के अपराधों की फेहरिस्त किंग कोबरा जैसे छुट्टियों से बहुत लंबी है। तकरीबन हर गुनाह कर चुका हूं मैं और अब भी कर रहा हूं। लेकिन कोई माई का लाल मेरे एक भी अपराध को अपराध साबित नहीं कर सकता। क्योंकि मुझे हर अपराध भारतीय दंड विधान की धाराओं के बीच सुरंग बनाकर करने की आर्ट आती है। तुम्हारे कानून की कभी कोई धारा नहीं तोड़ता में और उसके लिए इसकी जरूरत पड़ती है मिस्टर विकास |।" उसने अपनी तर्जनी उंगली से अपना मस्तक ठुकराया- "सिर्फ उसकी ।

और मैं अपनी उंगली की जरा-सी जुम्बिश से तेरे 'इसके परखच्चे उड़ा सकता हूं।" कामदेव-से सुंदर सात फुटे विकास ने उसकी कनपटी पर रिवाल्वर रख दिया था।

"इसे समझाओ मिस्टर विजय।" गुलाबी होठों पर मुस्कान लिए केशव पंडित ने विजय की तरफ घूमकर कहा-“इसे समझाओ कि जहां इसने रिवाल्वर लगा रखा है उसमें तोपों के रुख मोड़ देने की ताकत होती है।"

इससे पहले कि विजय कुछ कहता, वहां अलफांसे की आवाज गूंजी-"सामझाने तो में आया हूं तुझे।"

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विकास और केशव पंडित एक तरफ सुनामी लहरों का तांडव। दूसरी तरफ सिंगही, जैकसन और टुम्बकटू का घमासान। तीसरी तरफ नुसरत-तुगलक, बागारोफ, माइक, जैकी, और हैरी जैसे विश्व विख्यात जासूसों का टकराव। ऐसा रोमांचकारी उपन्यास या तो वेद प्रकाश शर्मा लिख सकते हैं या उनका बेटा-शगुन शर्मा।

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एक बार इस उपन्यास को पढ़कर जरूर देखें- -वेदप्रकाश शर्मा मेरे प्रेरक पाठको, आपको उपरोक्त संबोधन के बाद हमेशा मेरी अगली लाइन होती है, प्रस्तुत है—मेरा फलां उपन्यास। मगर इस बार लिख रहा हूं, प्रस्तुत है-शगुन शर्मा। और आप जानते हैं-शगन शर्मा मेरा उपन्यास नहीं बेटा है। हो सकता है आप यह सोचे कि शगुन लेखक इसलिए बना क्योंकि आज नेता का बेटा नेता बनता है, अभिनेता का अभिनेता और व्यापारी का बेटा अक्सर अपने पिता के ही व्यापार को संभालता है। मगर विश्वास कीजिए-ऐसा नहीं है। ऐसे उदाहरण अगर हैं भी तो 'गौण' जैसे ही हैं कि लेखक का बेटा लेखक निकले। 'बने' शब्द की जगह मैंने 'निकले' शब्द इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि कोई भी व्यक्ति लेखक 'बन' नहीं सकता। वह 'निकलता' ही है। निकलता इसलिए है क्योंकि लिखने की कला किसी स्कूल, किसी कॉलिज या किसी यूनिवसिटी में नहीं पढ़ाई जाती। यानी लेखक बनाया नहीं जा सकता । वह तो बस ईश्वर की कृपा से लेखक होता है। न मैंने कभी सोचा था कि शगुन लेखक हो सकता है और न कभी चाहा था कि वह लेखक हो, क्योंकि एक लेखक की वेदनाओं से मैं अच्छी तरह वाकिफ हूं और कोई भी बाप नहीं चाहता कि जो वेदनाएं उसने सही हैं वे उसका बेटा भी सहे। पर जैसा कि पहले ही कह चुका हूं कि लेखक बनाया नहीं जा सकता, बस होता है तो मेरे चाहने न चाहने से क्या होने वाला था?

शगुन लेखक है—सो है। यह बात मुझे पता भी तब लगी जब उसने 'विकास और केशव पंडित' की रिक्रप्ट मेरे सामने रख दी। मैंने पूछा-'ये क्या है?' उसका संक्षिप्त जवाब-'उपन्यास।
 मेरा अगला सवाल- 'किसने लिखा?' 
जवाब-'मैंने। मैं अवाक ।यह सच्चाई है कि काफी देर तक तो मैं बोल ही नहीं सका। बस यूं शगुन की तरफ देखता रह गया जैसे गूंगा हो गया होऊ मेरी ऐसी हालत इसलिए थी क्योंकि काफी देर तक सूझा नहीं था कि कहूं तो क्या कहूं और जब सूझा तो कहा-'पागल हो गया है तु? ये लेखक बनने की तुझे क्या सूझी? कुछ और बन-कुछ ऐसा जिससे नोट-वोट पीटे जा सकें। और फिर...तू तो पायलट की ट्रेनिंग ले रहा है। वही अच्छा है, पायलट बन जा तू।' उसने बस इतना ही कहा आप इसे एक बार पढ़ लीजिए। उसने लिखा था-सो, पढ़ना तो था ही। सोचा-जब अपने काम से फुर्सत मिलेगी तो थोड़ा-थोड़ा करके पढ़ लिया करुंगा। उसी शाम खाने के साथ पढ़ने बैठ गया और विश्वास कीजिए सारी रात ही काली हो गई मेरी। तीन बजे तक पढ़ता रहा, समाप्त करके ही रखी और बाकी रात यह सोचते सोचते गुजर गई कि शगुन ने यह सब लिख कैसे दिया ?
 इसे मेरे किरदारों की इतनी डीप नॉलिज कब हो गई?


सुबह, यह सवाल जब उससे किया तो उसने केवल इतना ही कहा-'मेरी प्रेरणा आप हैं, बल्कि अगर यह कहूं तो ज्यादा सटीक होगा कि असल में मेरी प्रेरणा आपके किरदार ही हैं। मैंने आपके उपन्यासों में जब उनके बारे में पढ़ा तो जो विचार दिमाग में कौंधे उन्हें बस लिख भर दिया है, अब यह पूरा उपन्यास बन गया—यह एक अलग बात है...वैसे आपको लगा कैसा?"

मैं कुछ नहीं बोला। उपन्यास के बारे में मैं इस पत्र में भी कुछ नहीं कहूंगा। जब अपने ही उपन्यास के बारे में कभी कुछ नहीं कहा तो उसके उपन्यास के बारे में क्या कह सकता हूँ? मेरा हमेशा से एक ही मानना है कि जज आप हैं। आप ही को फैसला करना है कि उपन्यास कैसा बन पड़ा है। हां, इतना जरूर कहूंगा कि मुझे यह छापकर आपकी अदालत तक पहुंचाने के लायक जरूर लगा था, वही मैंने किया है। मेरे अनुरोध पर एक बार इसे पढ़कर जरूर देखें। एक बात और शगुन की तुलना मुझसे हरगिज न करें यह बात निश्चित और आजमाई हुई है कि जिस पेशे में पिता ठीक-ठाक' मुकाम बना चुका हो उसी पेशे में बेटे का उतरना बेहद रिश्की होता है। कारण लोग पहले ही दिन से बेटे की तुलना पिता से करने लगते हैं जो कि उचित नहीं है। अभिषेक बच्चन और रितिक रोशन इसके उदाहरण हैं। अभिषेक को अपना स्थान बनाने में, दर्शकों की नजरों में खुद को स्थापित करने में इतना टाइम और एक्स्ट्रा आर्डिनरी मेहनत इसी लिए करनी पड़ी क्योंकि उसके पिता पहले ही बहुत ऊंचे मकाम पर स्थापित है और लोग पहले ही दिन से उसकी तुलना अमिताभ बच्चन से करने लगे थे। रितिक रोशन को पहली ही फिल्म में इतनी कामयाबी इसलिए मिल गई क्योंकि बतौर एक्टर राकेश रोशन कभी उतने हिट नहीं रहे। रितिक की तुलना यहां भी दर्शकों ने उसके पिता से की और पहले ही झटके में उसे अपने पिता से आगे पाया तो उसे अभिषेक के बराबर मेहनत नहीं करनी पड़ी। मतलब साफ है-शगुन को मेरी लोकप्रियता का खामयाजा भुगतना पड़ सकता है। इसलिए, एक बार फिर लिख रहा हूं कि बराए मेहरबानी शगुन का उपन्यास पढ़ते वक्त वेद प्रकाश शर्मा को दिमाग से पूरी तरह निकाल दें इसे सिर्फ शगुन का ही पहला उपन्यास समझकर पढें और फैसला स्वंय करें कि कैसा है तथा शगुन में लेखक बनने के तत्व हैं भी या नहीं?

यकीन मानिए- अगर आपने निष्पक्ष भाव से पत्र लिखे और बहुमत ने यह कहा कि शगुन में लेखक बनने के तत्व नहीं हैं तो मैं उसे यहीं रोक दूंगा। अर्थात भविष्य में आपको शगुन शर्मा का कोई उपन्यास पढ़ने को नहीं मिलेगा। शौकिया तौर पर प्लेन तो वह आज भी उड़ाता ही है, उससे यही कहूंगा कि लेखक बनने का ख्याल छोड़कर उसी को पेशे के रूप में अपना ले तो बेहतर होगा।

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मैंने 'असली केशव पंडित' पेश करने की कोशिश की है- शगुन शर्मा

उपन्यास की दुनिया के न्यायाधीशों, अपनी अदालत में मेरी, यानी शगुन शर्मा की हाजरी दर्ज करें। मैंने आपको उपन्यास की दुनिया के न्यायाधीश' का संबोधन दो कारणों से दिया है। पहला यह आप ही तय करते हैं कि कौन-सा उपन्यास क्या है और किस उपन्यासकार को इस मार्किट में टिकना है तथा किसे 'आऊट' हो जाना है। दूसरा-आज, जबकि मनोरंजन के अनेकों अनेक साधन मौजूद हैं, आप आज भी उपन्यास पढ़ते हैं तो उपन्यासों की दुनिया के न्यायाधीश ही कहलाएंगे। यह हकीकत है कि मेरा उपन्यास लिखना पापा को बिल्कुल पसंद नहीं आया। इसके भी दो कारण हैं। पहला- आप जानते ही हैं कि मैं प्लेन उड़ाता हूं और पायलट के लिए ट्रेनिंग ले रहा हूं। मेरे उपन्यास लिखने को पापा ने शायद उसमें गतिरोध समझा है। दूसरा-उनका कहना है कि जब वे इस क्षेत्र में आए थे तो मनोरंजन के साधन बहुत ही सीमित थे, उपन्यास पढ़ना उनमें प्रमुख था-शायद इसीलिए वे इस क्षेत्र में स्थापित हो गए जबकि आज मनोरंजन के साधनों की इतनी भरमार है कि उपन्यास पढ़ने वालों की संख्या सीमित रह गई है और इसीलिए इस क्षेत्र का कोई भविष्य नहीं है। जिस क्षेत्र में कोई भविष्य नहीं है उसमें भला कोई भी पिता अपने बेटे को क्यों उतरने देगा ?


मगर, मेरा मानना यह है कि अगर उपन्यास पढ़ने वालों की संख्या घटी है तो उसका कारण मनोरंजन के दूसरे साधन नहीं बल्कि उपन्यासों का लगातार गिर रहा स्तर है। मैं भी आपकी तरह एक पाठक हूं। पापा के अलावा भी अन्य ढेरों लेखकों के उपन्यास पढ़े हैं। विशेष चोट तब पहुंची जब मैंने ऐसे उपन्यास पढ़े जिनमें पापा के द्वारा 'क्रिएट' किए गए किरदारों की रेड मार दी गई है। विशेष रूप से मैं 'केशव पंडित' की बात कर रहा हूं। यह बात किसी एक लेखक की नहीं है।
पापा द्वारा पैदा किए गए केशव पंडित नामक किरदार को लेकर आज अनेक लेखक उपन्यास लिख रहे हैं। मुझे यह लिखने में जरा भी संकोच नहीं है कि एक ने भी न तो इस किरदार की गहराई को पकड़ने की कोशिश की, न ही पकड पाए और अगर पकड़ भी पाए है तो वे उसके साथ न्याय नहीं कर पाए। कमियां तो बहुत हैं। इस छोटे से पत्र में शायद सभी कमियों का जिक्र करना और उन पर डिस्कशन करना संभव नहीं है। उदाहरण के रूप में केवल दो बातों का जिक्र कर रहा हूं- पहली--केशव पंडित को 'वकील दिखाया जा रहा है। दूसरी-पापा की ही तर्ज पर कानून का बेटा तो लिखा जाता है उसे लेकिन कानून का आदर करने वाला' दिखाया जा रहा है। दोनों ही बातें गलत है। पापा के केशव पंडित' और 'कानून का बेटा' नामक उपन्यास आपने पढ़े ही हैं। उनमें केशव पंडित की बैकयाऊंड है। उनसे इन लेखकों ने केशव पंडित की कद-काठी और नीली आंखें तो ले लीं, उसका चारमीनार की सिगरेट पिना भी ले लिया लेकिन यह नोट नहीं कर सके कि उन उपन्यासों के मुताबिक वकालत पढ़ने का तो कभी केशव पंडित को मौका ही नहीं मिला। अपने ही परिवार की हत्या के इल्जाम में फरार केशव का सारा बचपन जेल में गुजरा, फिर भला बेचारे ने वकालत कहां पढ़ ली? हां, कानून की नॉलिज उसे किसी भी वकील से ज्यादा है क्योंकि वह आज भी कहता है-'वकीलों ने केवल पांच साल कानून की किताबें पढ़कर एल.एल.बी. की डिग्री हासिल की है जबकि मैंने सारी जिंदगी जेल में कानून की किताबों को पढ़ा ही नहीं है बल्कि घोट-घोटकर पिया है। वकील वो होता है, कोर्ट में खड़ा होकर किसी का केस वो लड़ सकता है जिसके पास एल.एल.बी. की डिग्री हो—केशव पंडित को कानून की नॉलेज भले ही वकीलों से ज्यादा हो लेकिन उसके पास डिग्री नहीं है, कोर्ट में खड़ा होकर वह किसी का केस नहीं लड़ सकता। जो लेखक केशव पंडित को लेकर उपन्यास लिख रहे हैं वे या तो इस बारीकी को समझे ही नहीं या उनमें इतनी बुद्धि ही नहीं थी कि समझ पाते-तभी तो हर उपन्यास में केशव पंडित को कोर्ट में किसी का केस लड़ते दिखा दिया जाता है!

बराए मेहरबानी वे ऐसा लिखना बंद करें। अब दूसरी बात पर आता हूं। केशव पंडित को कानून का बेटा शब्द पापा ने ही दिया है और केशव पंडित को आगे बढ़ाया गया लेकिन आमतौर पर लिखा जाता है कि केशव पंडित कानून का आदर करने वाला है। गलत...गलत...और यह सरासर गलत है। भला वह शख्स कानून का आदर कैसे कर सकता है जिसने अपना परिवार ही कानून की खामियों की वजह से खोया हो । वह तो कानून का सताया हुआ है। बात-बात पर कानून पर व्यंग करता है। उसमें कमियां निकालता है। हां, यह सच है कि वह कानून कभी नहीं तोड़ता मगर ऐसा इसलिए नहीं है कि वह कानून का आदर करता है बल्कि इसलिए है क्योंकि वह जानता है कि कानून तोड़ने वाले को कानून कभी नहीं छोड़ता। उसका मानना तो यह है कि कानून इस दुनिया का सबसे खतरनाक और सुरक्षित हथियार है। अगर उसकी धाराओं को तोड़-मरोड़कर हथियार बनाया जाए और उनके बीच से सुरंग बनाकर क्राइम किया जाए तो कानून ऐसे शख्स का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। कानून से बचने के लिए, उसकी खिल्ली उड़ाने वाले अंदाज में केशव पंडित ऐसे काम करता है जो वास्तव में हैं तो 'क्राइम' लेकिन कानून की कोई धारा उन्हें 'क्राइम' नहीं कहती। निश्चित रूप से ऐसे किरदार को लिखना और लगातार लिखते रहना एक बेहद मुश्किल काम है क्योंकि आप कहां तक केशव पंडित की ऐसी हरकतें ईजाद' करते रहेंगे वह 'क्राइम' भी कर रहा है और कानून की कोई धारा भी नहीं तोड़ रहा। इसके लिए वृहद, बेहद वृहद दिमाग चाहिए। इसलिए पापा ने भी केशव पंडित सीरीज के केवल सात ही उपन्यास लिखे हैं। मगर जिन्होंने नकल की उन्होंने अपनी सुविधा के मुताविक इस किरदार को तोड़-मरोड़ लिया। केशव पंडित जो असल में है क्योंकि वह लिखना बुद्धि का खेल था इसलिए हर लेखक ने उसे अपने ढंग से सरल बना लिया। और जब सरल बना लिया तो पढ़ने वालों को वह मजा कहां से आता जो केशव पंडित, कानून का बेटा, विजय और केशव पंडित तथाकोख का मोती के केशव पंडित ने दिया था?

वो केशव पंडित आप पाठकों को दे नहीं पाए और पाठकों की घटती संख्या का ठीकरा मनोरंजन के दूसरे साधनों पर फोड़ रहे हैं। मेरी धारणा है कि अगर पाठकों को वही केशव पंडित दिया जाए तो पढ़ने वाले आज भी उपन्यासों को उसी चाव से पढ़ेंगे जिस चाव से केशव पंडित' और 'कानून का बेटा' आदि पढ़े गए थे मैंने अपनी इसी धारणा के तहत 'विकास और केशव पंडित लिखा है। कोशिश की है कि एक बार फिर उसी केशव पंडित से आपको रू-ब-रू करा सकें जिससे आप पापा के उपन्यासों में मिलते रहे हैं। यह फैसला तो आप ही को करना है कि कहां तक सफल हुआ परंतु लिखने के बाद मैं इतना संतुष्ट जरूर हूं कि दूसरे लेखकों की तरह सिर्फ उपन्यास लिखने के लिए' मैंने केशव पंडित को अपने ढंग से ईजी नहीं बना लिया है। जितना टिपिकल ये करेक्टर है, उतना ही टिपिकल बनाए रखकर पेश करने की कोशिश की है। रेप के दो-चार गंदे-गंदे सीन लिखकर, अपने करेक्टर्स से गाली गलौंच कराकर अथवा बार-बार सेक्स-सीन लिखकर आपको अपना उपन्यास पढ़ाने की मेरी कोई मंशा नहीं है। अगर वही सब पढ़ना है तो 'उन्हीं को पढ़ लें क्योंकि मेरे उपन्यास में वह सब नहीं मिलेगा।

अंत में एक बात और कहनी चाहता हूं। सिर्फ इतनी कि बेशक मैंने अपने पापा के किरदारों से प्रेरित होकर और केशव पंडित को लेकर प्रकाशित किए जा रहे ऊल-जुलूल उपन्यासों से खंदक खाकर यह उपन्यास लिखा है लेकिन मुझे केवल मैं ही समझकर उपन्यास पढ़ा जाए।मेरी तुलना पापा से न की जाए।



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